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अनन्तमती की कहानी

चम्पानगरी में प्रियदत्त सेठ रहते थे । उनकी पुत्री का नाम अनन्तमती था । वह रूपवती तो थी ही और सेठ जी ने विद्याभ्यास करा कर सोने में सुगन्ध ही मिला दी थी । अष्टाह्निका के पहले सेठ प्रियदत्त श्री धर्मकीर्ति मुनि के पास गये और अपनी पुत्री को भी साथ ले गये । वहां उन्होनें मुनिराज के पास आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । पिता की देखादेखी अनन्तमती ने भी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । उस समय तो वह छोटी थी, परन्तु जब युवती हुई और सेठ जी उसका विवाह करने लगे तो उसने नहीं करवाया ।

एक दिन वह बगीचे में झूला झूल रही थी कि दक्षिण श्रेणी का कुण्डलमंडित विद्याधर अपनी स्त्री सहित विमान में बैठा हुआ वहां से निकला और अनन्तमती को देखते ही मोहित हो गया । इससे वह जल्दी से अपनी स्त्री को घर पर छोड़ आया और वहां आकर अनन्तमती को उठाकर चल दिया ।

कुण्डलमंडित की स्त्री को कुछ संदेह हुआ और वह घर से लौट आई । उसे आती देखकर उस पापी ने एक भयंकर वन में अनन्तमती को चुपचाप छोड़ दिया । बेचारी वहां अकेली रो रही थी कि भीलों का राजा भीम यहां -वहां घूमता हुआ उस स्थान पर आ पहुंचा और उसे धैर्य बॅंधा कर वह अपने घर ले गया परन्तु भीम ने भी उसे अपनी स्त्री बनाना चाहा और रात्रि में जबरदस्ती उसका शील भंग करने की कुचेष्टा की । तब वहां के वनदेवता ने क्रोधित होकर भीम को बहुत मार लगाई । तत्पश्चात् भीम ने उसे पुष्पक नाम के व्यापारी को सौंप दिया ।

व्यापारी ने भी अनन्तमती के साथ पाप विचारा, पर वह उसके वश में नहीं हुई । तब पुष्पक ने उसे कामसेना नाम की वेश्या को दे दिया । वह वेश्या भी अनन्तमती से वेश्या-कर्म कराने का उपाय करने लगी पर वह सती अपने सतीत्व से नहीं डिगी । तब उस वेश्या ने उसे अयोध्या के राजा सिंहराज के पास भेज दिया । वह दुष्ट भी कामेच्छा पूरी करने के लिये अनन्तमती के साथ जबरदस्ती करने लगा । तब वहां के नगरदेव ने प्रगट होकर अनन्तमती के शील की रक्षा की ।

यद्यपि अनन्तमती को शील धर्म से डिगाने के लिये कुण्डलमंडित, भिल्लराज, पुष्पक, कामसेना और सिंहराज ने बड़े-बडे़ प्रयत्न किये पर वह अपने धर्म से नहीं डिगी । अन्त में जहां तहां भटकती पझश्री आर्यिका के पास अयोध्या में रहने लगी । सेठ प्रियदत्त, अनन्तमती के विछोह का दुःख भुलाने के लिये यात्रा करते हुये अयोध्या पहुंचे और अपने साले जिनदत्त के यहां ठहरे । अनन्तमती सेठ जिनदत्त के यहां जाया करती थी तथा रंग गुलाल से चैक पूरकर आंगन में शोभा किया करती थी । उस दिन नित्य की तरह आंगन में मंडल करके वह चली गई थी कि सेठ प्रियदत्त स्नान पूजन के बाद सेठ जिनदत्त के चैके में भोजन को गये । वह मंडप देखते ही उन्हें जातिस्मरण हो गया । उन्होनें सेठ जिनदत्त से कहा कि जिस बाई ने यह चैक पूरा है उसे बुलाइये ।

जिनदत्त ने अनन्तमती को बुला दिया तब दोनों पिता पुत्री मिल कर बहुत प्रसन्न हुये । उनकी भेंट से सेठ जिनदत्त ने बड़ा आनन्द मनाया । कुछ दिनों बाद सेठ प्रियदत्त ने अनन्तमती से घर चलने को कहा । उसने उत्तर दिया पिता जी मैं इस असार संसार का हाल खूब जान चुकी हूं, इससे अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूंगी । सेठ ने अनन्तमती को बहुत समझाया पर वह नहीं मानी । तब उन्होेनें पझश्री आर्यिका से दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी ।

अनन्तमती ने जिनदीक्षा लेकर प्रशस्त तप किया और आयु के अन्त में समाधिपूर्वक शरीर छोड़ कर बारहवें स्वर्ग में देव पद पाया और वहां से चय नर जन्म पाकर मुनि पद पाकर घेार तपस्या करके शिवपद पाया ।

सारांश - मनुष्यों को उचित है कि इन्द्रियों के विषयों में मग्न न होकर अनन्तमती के समान निःकांक्षित गुण को निर्मल करें ।


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